बदलते पाया है तुम्हे
मौसम की तरह...
कभी उफनती
गरम थपेड़ों की तरह ...
प्यार करते हुए ...
बस तेरे आगोश में...
पिघल सी गयी हूँ 'मै',
जैसे..........
लौह,पिघलता हो
गर्म आँच पाकर...
कभी बरसात की
घटाओ की तरह....
जो उमड़ कर अपना
सारा प्यार...
धरती पर...
लुटा देना चाहता हो...
कभी....
ठंड की थपेड़ों की तरह
जैसे....
नर्म ,मुलायम रुई के फाहे में ...
किसी...नवजात को
बचाने की कोशिस में...
खुद का ख्याल ना होना
कभी पतझड़ की तरह ....
जब हर आहट
सांय-सांय करती हो...
और....एक अनजानी सी
डर के कारण
मै दरवाज़े के पल्ले को
पीठ के सहारे
दबा के खड़ी हूँ ...
की कोई एक झोका
पल्ले को हिला ना जाये
इन चार मौसम का
प्यार तुम्हारा अद्भुत है
जिसे सिर्फ मै समझ पाती हूँ
सिर्फ मै...Vasu
वसुंधरा जी आपकी पोस्ट बहुत सुन्दर अहसास समेटे हुए है..... प्यार भरे चार मौसम......बहुत सुन्दर लगी पर यहाँ कुछ गलतियाँ दिखीं मुझे......अन्यथा न लेते हुए हो सके तो सुधार करें -
ReplyDeleteलाह - लोहा
घटावों - घटाओं
ठंढ - ठंड
अनजानी - अनजाने
jee kal post karte huye hi net disconect ho gya tha aur mai sudhar nahi payi thi ...lakh ko ham sab ."laah" kahte hain ......
ReplyDeletebaki ko mai sudhar deti hun ...sadar aabhar aapko mujhe raah dikhane ke liye
वाह ! बेहद खूबसूरती से कोमल भावनाओं को संजोया इस प्रस्तुति में आपने .....वसुंधरा जी
ReplyDeleteसंजय जी दिल से आभारी हूँ आपकी ...आपने अपना बहुमूल्य समय में से इतना समय निकाल कर मेरे ब्लाग पर आये...और मैंने देखा है की आपने लगभग मेरे हर पोस्ट पर अपना कीमती शब्द उकेर गए हैं बहुत बहुत धन्यवाद ...आभारी हूँ !
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