Monday, January 9, 2012

सिंदूर


बचपन में
माँ को सिंदूर लगाते देख
जिद की थी मैंने भी
माँ
मुझे भी लगाना है सिंदूर
मुझे भी लगा दो न
तब माँ ने समझाया था-
ऐसे नहीं लगाते
बहुत कीमती होता है यह
घोड़ी पे चढ़के एक राजा आएगा
ढेरों गहने लाएगा
तुमको पहनाएगा
फिर सिंदूर तुम्हे ‘वही’ लगाएगा
रानी बनाके तुम्हे डोली में
ले जाएगा
तब उन बातों को, पलकों ने
सपने बना के अपने कोरों पे सजाया
बड़ी हुई
देखा…बाबा को भटकते दर-बदर
बिटिया की माँग सजानी है
मिले जो कोई राजकुमार
सौंप दूँ उसके हाथों में इसका हाथ
राजकुमार मिला भी पर
शर्त-दर-शर्त
‘आह’
किस लिए
चिटुकी भर सिंदूर के लिए
‘उफ्फ’…..माँ
क्या इसे ही राजकुमार कहते हैं ?
काश! बचपन में यह बात भी बताई होती
राजकुमार तुम्हारी राजकुमारी को
ले जाने लिए इतनी शर्तें मनवाएगा
तुम्हारी मेहनत की गाढ़ी कमाई
ले जाएगा
तुम्हारी राजकुमारी पर आजीवन
राजा होने का हुक्म चलाएगा
तो सिंदूर लगाने का सपना
कभी नहीं सजाती.
कभी नहीं माँ .. .. .. !!

(किसी व्यक्ति विशेष से न जोड़ा जाये...इसे,
सिर्फ दहेज़ विरोधी कविता है ये...न मेरी कहानी ना आप की)

7 comments:

  1. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  2. वाह...बहुत बढ़िया...दिल को छु गयी आपकी मार्मिक कविता....

    ReplyDelete
  3. बहुत सुन्दर शब्दों में शानदार रचना है|

    ReplyDelete
  4. दहेज पर करार व्यंग किया है आपने वसुंधरा जी ....शब्द रचना शानदार

    ReplyDelete
  5. बेहद सुंदर रचना

    ReplyDelete
  6. समाज की दुखती रग सबकी सांझा होती है ,न तेरी होती है न मेरी और उसी नस पे हाथ धर दिया है इस रचना ने

    ReplyDelete