Saturday, February 18, 2012

अनवरत प्रवाह...समय का !!

क्या हो गया है
क्यूँ सो नहीं पा रही
बादलों से ढकी ...
जाड़े की रात
ठिठुरे हुए खामोश पेड़,
अत्यंत अरुचिकर स्थान पर
नीलिमा में डूबे हुए
परम क्षणों की
एक अजस्र धारा,
अन्दर कहीं प्रवाहित हो रही

पलकें छलछला आतीं
बार -बार
चांदनी में टहलने का मन ..
पर ठण्ड के कारण ...
निकलना मुमकिन नहीं

लाइट बुझा ...
खिडकियों के परदे हटा
बहुत देर तक खड़ी रही,
सामने खिड़की के
एक पेड़ और उस पर
हलकी चांदनी के
विशाल धब्बे दिख रहे थे

कभी -कभी मोर की
आवाज आती हुई...
एक कोई और पंक्षी
अनवरत रट से बोलता रहा
क्या चक्रवाक था ???

चांदनी भी कांप रही थी
जैसे कोई शांत जल में
कंकड़ डाल उसे कँपा दे...
सब के बीच
इतनी अकेली क्यूँ ?

अचानक मोबाईल के...
अलार्म ने बताया कि मै भी
जाग रहा तुम्हारे संग ...

उठी ,सोच रही थी की
ये...समय का
अनवरत प्रवाह है
इसे मै 'किसी प्रकार'
अंजलि में लेकर पी जाती...!!

4 comments:

  1. bahut khubsurat.. kaash main bhi samay ke pravaah ko pee pati..

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  2. बेहद प्रभावशाली रचना!

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  3. वसुंधरा जी, आपकी कविता में चीजें जिस तरह मानवीय संवेदना के विभिन्न रूपों में ढल कर आती हैं और जिस तरह हर रूप का दूसरे रूप से एक लयात्मक संबंध बनता है - वह एक अलग छाप छोड़ता है | आपकी कविताओं में अनुभूति की तत्क्षणता का जो बहुत ज्यादा महत्व है उससे आभास मिलता है कि एक कवि के रूप में आपके लिए अर्थ चीज़ों में नहीं, उनकी जिजीविषा में है |

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