Wednesday, June 26, 2013

मन के उथल पुथल



दिन-रात यही सोच

क्यों और कैसे
चाहने लगी मैं उसे इतना
जैसे वह मेरी जागी आँखों का सपना

सांकल किवाड़ द्वार सब बंद

पर वह आ रहा है, जा रहा है
हवा की मानिंद
बाहर से भीतर
भीतर से बाहर, सांस के जैसा

पत्ते की खडखडाहट जितनी भी
उसकी कोई आहट नहीं
फिर कैसी यह उथल-पुथल
जैसे कोई मस्त बवंडर

हफ्तों से छोड़ रखी, घर का सब काम
न दिन का चैन है न रात को आराम

गर्वीला हठीला शर्मीला सजीला सा
पर वह है कौन ?
बस आ रहा है... जा रहा है
कुछ कहे सुने पूछे बिन

मैं क्यों बैठी
करती उसी का चिन्तन ?
बिखरे सब काम... !!

***

2..
पहले सारे जरूरी काम

नेह की उमंग हो
या लहरों का गान
कविता का छंद हो
या प्रगटें भगवान
पहले सारे जरूरी काम

समयानुसार
नियमानुसार
अमुक से वसूली
अमुक को उपहार
प्यार में जरूरी है
फुर्सत आराम
पहले सारे जरूरी काम

सोचती हूँ
कल सुबह से पहले
बिखरे काम निपटाउंगी
मिलेगा अगर खाली टाइम
तब जाकर बतियाऊगी
उस बे-ईमान से पूछूंगी

क्या बिगाड़ा है रे तेरा
क्यों करे हैरान-परेसान ?
पहले सारे जरूरी काम ...

4 comments:

  1. बहुत सुन्दर लेख ...

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  2. प्रेम का दीवानापन अक्सर ऐसे ही मुकाम पे ले आता है ... जब सब कुछ जागती अंकों का सपना ही लगता है ...

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  3. सोचती हूँ
    कल सुबह से पहले
    बिखरे काम निपटाउंगी
    मिलेगा अगर खाली टाइम
    तब जाकर बतियाऊगी
    उस बे-ईमान से पूछूंगी

    क्या बिगाड़ा है रे तेरा
    क्यों करे हैरान-परेसान ?
    पहले सारे जरूरी काम ...
    खुबसूरत रचना ,बहुत सुन्दर भाव भरे है रचना में,आभार !
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