Monday, July 8, 2013

कुलवधू नही नगरवधू

वह प्राणों सी प्रिय
उमगता यौवन
उफनती इच्छाएं लिए
बड़ी हो रही थी

ललाट पर चिंता की रेखा लिए
कुंचित हुई बाबा की भृकुटी

सहस्त्राधिक बालिकाएं भी
इस कुसुमकुञ्ज-कलिका समान
हो सकती हैं क्या ?

इतनी गंध, कोमलता,
सौन्दर्य भला
और किस पुष्प में है ?

दिन-दुगुनी, रात-चौगुनी
अप्रतिम सौन्दर्य-लहरी..
तभी तो
बचपन में ही ले भागे थे अपने गाँव

भय था,
वज्जियों के धिकृत नियम से
कहीं बिटिया
'नगरवधू' ही न बना दी जाए

पर होनी को
कब, कौन  टाल सका है ?

बिटिया के मन में उठी
एक कंचुकी की चाह
उस वृद्ध महानामन को
लौटा लाई वैशाली में फिर से
जिसने रच रखा था
आम्रपाली का भविष्य
अपने नियमानुसार

कुलवधू नही
नगरवधू बनाना था
उस अभिशप्त सौन्दर्य को
वंचित करते हुए उसे
उसकी नैसर्गिक प्रीत से

क्या आज भी
वैशाली के उस नियम में
कोई बदलाव नजर आता है ...???

( आचार्य चतुरसेन का उपन्यास "वैशाली की नगरवधू" पढ़ते हुए ये लिखना हुआ  )

5 comments:

  1. आपकी रचना कल बुधवार [10-07-2013] को
    ब्लॉग प्रसारण पर
    कृपया पधार कर अनुग्रहित करें |
    सादर
    सरिता भाटिया

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  2. bahut hi marmik rachana ........yatharth jeevan me aaj bhi Nagar badhu ko banane se koi rok nahi pa rha hai yahan tk ki hamara kanoon bhi .....sundar rachana ke liye aabhar .

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  3. उपन्यास की आत्मा की लिख दिया इन पंक्तियों में ...

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  4. वाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |

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  5. सोचने को विवश करती पंक्तियाँ

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